पाठ 3 नीति के दोहे (रहीम, बिहारी, वृन्द)
कहि रहीम सम्पति सगे, बनत बहुत बहु रीत ।
विपत कसौटी जे कसे, सोई साँचे मीत ।। (1)
प्रसंग- प्रस्तुत दोहा हमारी हिन्दी की पाठ्य पुस्तक में संकलित ‘नीति के दोहे’ में से रहीम के दोहों में से लिया गया है। इस दोहे में रहीम अच्छे मित्र की पहचान बताते हैं।
व्याख्या– रहीम जी कहतें हैं कि जब व्यक्ति के पास धन-संपत्ति आदि सब कुछ हो तो उसके बहुत सारे मित्र बन जाते हैं परन्तु सच्चा मित्र वही होता है जो विपत्ति या गरीबी के समय अपने मित्र का साथ देता है।
एकै साधे सब सधै, सब साधै सब जाय ।
रहिमन सींचे मूल को, फूलै फलै अधाय ।। (2)
प्रसंग- प्रस्तुत दोहा हमारी हिन्दी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘नीति के दोहे’ में से रहीम के दोहों में से लिया गया है। इस में रहीम ने अपनी मंजिल की ओर केन्द्रित होने की शिक्षा दी है।
व्याख्या- इस दोहे में रहीम जी मनुष्य को अपने लक्ष्य को केन्द्रित करने की बात करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार पेड़ की जड़ को सींचने से उस पर फल, फूल, पत्तियाँ स्वतः प्राप्त होने लगती हैं इसी प्रकार जीवन में एक लक्ष्य निर्धारित करके उसे साधने का प्रयास करें तो सारे फल (लक्ष्य) अपने आप ही मिल जाते हैं।
तरूवर फल नहिं खात हैं, सरवर पियहिं न पान ।
कहि रहीम पर काज हित, सम्पति संचहिं सुजान ।। (3)
प्रसंग- प्रस्तुत दोहा हमारी हिन्दी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘नीति के दोहे’ में से रहीम के दोहों में से लिया गया है। इस में रहीम ने परोपकारी व्यक्तियों के स्वभाव के बारे में बताया है।
व्याख्या- रहीम जी कहते हैं कि जिस प्रकार वृक्ष कभी भी अपने फल स्वयं नहीं खाते, सरोवर अपना जल स्वयं नहीं पीते। उसी प्रकार सज्जन व्यक्ति व परोपकारी व्यक्ति दूसरों की भलाई के लिए भी धन संचित करते हैं।
रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि ।
जहाँ काम आवे सुई, का करे तरवारि ।। (4)
प्रसंग- प्रस्तुत दोहा हमारी हिन्दी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘नीति के दोहे’ में से रहीम के दोहों में से लिया गया है। इस दोहे में कवि ने बताया है कि प्रत्येक वस्तु का चाहे वह छोटी है या बड़ी, सबका अपना-अपना महत्त्व है।
व्याख्या- रहीम जी कहते हैं कि बड़ी वस्तु को देखकर हमें छोटी वस्तु की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। वह कहते हैं कि जहाँ जो काम सूई कर सकती है वह काम तलवार नहीं कर सकती ।
कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय ।
बह खाये बौरात है, यह पाए बौराय ।। (5)
प्रसंग-प्रस्तुत दोहा हमारी हिन्दी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘नीति के दोहे’ में से बिहारी के दोहों में से लिया गया है। इस में बिहारी जी व्यक्ति के धन-दौलत के नशे के बारे में बताया है।
व्याख्या- बिहारी जी कहते हैं की कनक (सोने) का नशा धतूरे (कनक) के नशे से सौ गुना अधिक होता है क्योंकि धतूरे को तो खाने से ही व्यक्ति को नशा चढ़ता है पर धन-सम्पत्ति प्राप्त करते ही उसका नशा चढ़ जाता है।
इहि आशा अटक्यो रहै, अलि गुलाब के मूल।
हो इहै बहुरि बसन्त ऋतु, इन डारनि फूल।। (6)
प्रसंग- प्रस्तुत दोहा हमारी हिन्दी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘नीति के दोहे’ में से बिहारी के दोहों में से लिया गया है। इस दोहे में बिहारी जी व्यक्ति को आशावादी होने का सन्देश दिया है।
व्याख्या- बिहारी जी कहते हैं की जिस प्रकार भँवरा इसी आशा व विश्वास से पतझड़ में भी गुलाब के मूल (जड़ों) में अटका रहता है कि जब बसन्त ऋतु फिर से आएगी तो इसकी डालियों पर फिर से फूल लगेंगे। वह फिर से इन फूलों का रसपान करेगा। इसी प्रकार मनुष्य को भी जीवन में सदा आशावादी बने रहना चाहिए।
सोहतु संग समानु सो, यहै कहै सब लोग ।
पान पीक ओठनु बनैं, नैननु काजर जोग ।। (7)
प्रसंग- प्रस्तुत दोहा हमारी हिन्दी की पाठ्य पुस्तक में संकलित ‘नीति के दोहे’ में से बिहारी जी के दोहों में से लिया गया है। इस में बिहारी जी समान स्वभाव वाले लोगों के विषय में बताया है।
व्याख्या- बिहारीजी कहते हैं की सब लोग यही कहते हैं कि एक समान स्वभाव या प्रकृति वाले लम्बे समय तक साथ रहते हैं। जैसे पान की पीक लाल रंग की होठों पर बनी रहती है और काजल काले रंग का होता है और वह आँखों में बसता है।
गुनी-गुनी सबकै कहैं, निगुनी गुनी न होतु।
सुन्यौ कहूँ तरू अरक तें, अरक-समान उदोतु ।। (8)
प्रसंग- प्रस्तुत दोहा हमारी हिन्दी की पाठ्य पुस्तक में संकलित ‘नीति के दोहे’ में से बिहारी जी के दोहों में से लिया गया है। इस दोहे में बिहारी जी गुण और योग्यता पर ध्यान देने की बात कहते हैं।
व्याख्या- बिहारी जी कहते हैं कि किसी गुणहीन को यदि हम गुणी-गुणी कहते रहें तो इससे वह गुणी नहीं बन जाएगा। आक के पौधे और सूर्य दोनों को अर्क कहा जाता है पर आक के पौधे के गुण सूर्य के समान नहीं हो जाते। इसलिए केवल नाम समान हो जाने से कुछ नहीं होता। हमें व्यक्ति के नाम पर नहीं उसकी गुण और योग्यता पर ही ध्यान देना चाहिए।
करत करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजन ।
रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निसान ।। (9)
प्रसंग- प्रस्तुत दोहा हमारी हिन्दी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘नीति के दोहे’ में से वृन्द के दोहों में से लिया गया। इस दोहे में वृन्द जी परिश्रम के महत्त्व को बताया है।
व्याख्या- जिस प्रकार एक पत्थर की सिल पर भी जब बार-बार रस्सी घिसती है तो उस पर भी निशान पड़ जाते है उसी प्रकार निरन्तर अभ्यास से एक जड़ बुद्धि अर्थात् मूर्ख व्यक्ति भी सुजान अर्थात् चतुर एवं समझदार व्यक्ति बन जाता है।
फेर न ह्वै है कपट सों, जो कीजै व्यापार।
जैसे हाँडी काठ की, चढ़े न दूजी बार।। (10)
प्रसंग- प्रस्तुत दोहा हमारी हिन्दी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘नीति के दोहे’ में से वृन्द के दोहों में से लिया गया है। इस दोहे में वृन्द जी कहते हैं व्यक्ति की चालाकी बार-बार नहीं चल सकती।
व्याख्या- जिस प्रकार काठ की एक बार ही चूल्हे पर चढ़ती है दोबारा वह चूल्हे पर नहीं चढ़ सकती। उसी प्रकार छल-कपट का व्यवहार थोड़ी देर ही चलने वाला होता है। किसी व्यक्ति की चालाकी बार-बार नहीं चल सकती।
मधुर वचन ते जात मिट, उत्तम जन अभिमान।
तनिक सीत जल सों मिटे, जैसे दूध उफान।। (11)
प्रसंग- प्रस्तुत दोहा हमारी हिन्दी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘नीति के दोहे’ में से वृन्द के दोहों में से लिया गया है। इस दोहे में वृन्द जी मीठी वाणी का महत्त्व बताते हुए कहते हैं।
व्याख्या- जो व्यक्ति अभिमानी प्रवृति के होते हैं उनके अभिमान से भरे वचनों को मीठे वचनों से उसी प्रकार शांत किया जा सकता है जिस तरह दूध का उबाल ठण्डे छोटे से दूर हो जाता है। इसमें दर्शाया गया है कि वाणी की मिठास से हम अभिमानी से अभिमानी व्यक्ति के स्वभाव को भी शान्त कर सकते हैं
अरि छोटो गनिये नहीं, जाते होत बिगार ।
तृण समूह को तनिक में, जारत तनिक अंगार।। (12)
प्रसंग- प्रस्तुत दोहा हमारी हिन्दी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘नीति के दोहे’ में से वृन्द के दोहों में से लिया गया है। इस दोहे में वृन्द जी कहते हैं कि हमें अपने शत्रु को छोटा नहीं समझना चाहिए बल्कि हमें उस से सावधान रहना चाहिए।
व्याख्या- वृन्द जी कहते हैं कि हमें अपने दुश्मन को कभी छोटा नहीं समझना चाहिए। ऐसा करने से स्थिति बिगड़ जाती है। जैसे एक छोटी-सी चिंगारी से तिनकों के बड़े समूह में आग लग जाती है ऐसे ही छोटे समझे जाने वाला दुश्मन भी हमारा काम बिगाड़ सकता है।
(क) विषय-बोध
1. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-दो पंक्तियों में दीजिए:-
प्रश्न 1. रहीम जी के अनुसार सच्चे मित्र की क्या पहचान है?
उत्तर- रहीम जी के अनुसार सच्चा मित्र वही है जो विपत्ति या कठिनाई में साथ देता है।
प्रश्न 2. ज्ञानी व्यक्ति सम्पत्ति का संचय किस लिए करते हैं?
उत्तर- ज्ञानी व्यक्ति सम्पत्ति का संचय परमार्थ अर्थात् दूसरों की भलाई के लिए करते हैं।
प्रश्न 3. बिहारी जी के अनुसार किसका साथ शोभा देता है?
उत्तर- एक जैसे स्वभाव वाले लोगों का साथ शोभा देता है।
प्रश्न 4. बिहारी जी ने मानव को आशावादी होने का क्या संदेश दिया है?
उत्तर- बिहारी जी ने कहा है कि जौस प्रकार भंवरा पतझड़ में भी बसन्त ऋतु के लिए आशावादी रहता है, इसी तरह हमें भी सदा अच्छे दिनों के लिए आशावादी होना चाहिए।
प्रश्न 5. छल और कपट का व्यवहार बार-बार नहीं चल सकता-इसके लिए वृन्द जी ने क्या उदाहरण दिया है ?
उत्तर- छल और कपट के व्यवहार सम्बन्धी वृन्द जी ने कहा है कि जिस प्रकार काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ सकती उसी तरह धोखेबाज की चालाको भी बार-बार नहीं चल सकती।
प्रश्न 6. निरन्तर अभ्यास से व्यक्ति कैसे योग्य बन जाता है? वृन्द जी ने इसके लिए क्या उदाहरण दिया है?
उत्तर- जैसे रस्सी के बार-बार आने जाने से पत्थर पर भी निशान पड़ जाता है वैसे ही अभ्यास से मन्द बुद्धि भी कुशाग्र बन सकता है।
प्रश्न 7. शत्रु को कमज़ोर या छोटा क्यों नहीं समझना चाहिए?
उत्तर- शत्रु को कमजोर या छोटा इसलिए नहीं समझना चाहिए क्योंकि वह छोटा होते हुए भी बड़ी हानि कर सकता है।