पाठ 3. बिहारी (महाकवि बिहारी)
महाकवि बिहारी का नाम हिंदी साहित्य की रीतिकालीन कविता में सर्वोपरि है । इनका जन्म सन् 1595 के आसपास ग्वालियर के निकट बसुवा गोबिंदपुर में हुआ था । ये जयपुर के महाराजा जयसिंह के दरबारी कवि थे । इनके पिता केशवराय इन्हें आठ वर्ष की आयु में ओरेछा ले गए, जहाँ बिहारी ने प्रसिद्ध कवि केशवराय के पास रहकर काव्य शिक्षा ग्रहण की । महाराजा जयसिंह के आग्रह पर इन्होंने ‘बिहारी सतसई‘ की रचना की , जिसमें सात सौ से अधिक दोहे हैं । इनका निधन सन् 1663 के लगभग वृन्दावन में हुआ ।
प्रस्तुत संकलन में बिहारी के भक्ति, सौंदर्य तथा नीति से संबंधित दोहे लिए गए हैं । भक्ति संबंधी दोहों में, राधा से सांसारिक दुखों को दूर करने की विनती की गई है । सौंदर्य वर्णन में, नारी के अंगों की कोमलता और आभूषणों से सजे नारी सौंदर्य का अतिशयोक्तिपूर्ण चित्रण है । नीति संबंधी दोहों में गुणों के महत्व, प्यास बुझाने वाले छोटे जलाशय का महत्व, और लोभी व्यक्ति के स्वभाव पर प्रकाश डाला गया है । इन सभी दोहों में ब्रज भाषा की स्वाभाविकता और आलंकारिकता का गुण विद्यमान है ।
2. सप्रसंग व्याख्या खंड
भक्ति वर्णन
पद्यांश 1:
मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ।
जा तन की झांई परें, स्यामु हरित दुति होइ ।।
प्रसंग: यह पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी पुस्तक 12′ में संकलित ‘बिहारी‘ (महाकवि बिहारी) द्वारा रचित भक्ति संबंधी दोहे से लिया गया है। इस दोहे में कवि ने चतुर (नागरि) राधा से अपने सांसारिक दुखों (भव बाधा) को दूर करने की प्रार्थना की है ।
व्याख्या: कवि बिहारी चतुर राधा से विनती करते हैं कि वह उनके सांसारिक दुःख (भव बाधा) दूर करें । कवि कहते हैं कि वही राधा मेरी बाधाओं को दूर करें, जिनके शरीर की परछाहीं (झांई) पड़ने से श्री कृष्ण (स्यामु) हरे रंग वाले (हरित दुति) हो जाते हैं । यहाँ ‘झांई‘ का अर्थ परछाहीं, झाँकी या ध्यान तथा ‘स्यामु‘ का अर्थ श्यामवर्ण वाले श्री कृष्ण या श्री कृष्ण चन्द्र और ‘हरित दुति‘ का अर्थ हरे रंग वाला या हरा भरा/प्रसन्न वदन भी है ।
पद्यांश 2:
जप माला छापा तिलक सरै न एकौ काम।
मन कांचै नाचै वृथा, सांचे रांचै राम ।।
प्रसंग: यह पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी पुस्तक 12′ में संकलित ‘बिहारी‘ (महाकवि बिहारी) द्वारा रचित भक्ति संबंधी दोहे से लिया गया है। इस दोहे में कवि बाहरी आडंबरों को व्यर्थ बताते हुए सच्चे मन से भक्ति करने के महत्व पर बल देते हैं।
व्याख्या: कवि कहते हैं कि हाथ में जप की माला लेने से, माथे पर तिलक लगाने से, और शरीर पर छापे लगाने जैसे बाहरी आडंबरों से एक भी काम (ईश्वर–प्राप्ति का) सिद्ध नहीं होता है । यदि मन कच्चा (मन कांचै), अर्थात चंचल और अपवित्र है, तो यह सब व्यर्थ ही नाचते रहते हैं (कोई लाभ नहीं होता) । राम (ईश्वर) तो केवल सच्चे (सांचे) मन से भक्ति करने वाले को ही मिलते हैं (रांचै) ।
सौन्दर्य वर्णन
पद्यांश 3:
पंक्तियाँ: सोहत औढ़ें, पीत पटु, स्याम सलोने गात।
मनौ नीलमनि सैल पर, आतपु परयौ प्रभात ।।
प्रसंग: यह पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी पुस्तक 12′ में संकलित ‘बिहारी‘ (महाकवि बिहारी) द्वारा रचित सौंदर्य संबंधी दोहे से लिया गया है। इस दोहे में कवि ने श्री कृष्ण के साँवले शरीर पर पीले वस्त्रों की शोभा का अत्यंत मनोहारी चित्रण किया है।
व्याख्या: कवि कहते हैं कि सुन्दर (सलोने) और साँवले शरीर (स्याम गात) वाले श्री कृष्ण पर पीले वस्त्र (पीत पटु) ओढ़ना बहुत ही शोभा दे रहा है । उन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो (मनौ) नीलमणि पर्वत (नीलमनि सैल) पर प्रभात (सवेरे) की धूप (आतपु) पड़ रही हो । यहाँ नीलमणि पर्वत की उपमा श्री कृष्ण के साँवले शरीर से और प्रभात की धूप की उपमा पीले वस्त्रों से की गई है, जो एक अतिशयोक्तिपूर्ण एवं मनोहारी चित्रण है।
पद्यांश 4:
कहत सबै बेंदी दिए अंक दस गुनौ होत।
तिय लिलार बेंदी दिये अगनित बढतु उदोत ।।
प्रसंग: यह पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी पुस्तक 12′ में संकलित ‘बिहारी‘ (महाकवि बिहारी) द्वारा रचित सौंदर्य संबंधी दोहे से लिया गया है। इस दोहे में कवि ने नायिका के माथे पर बिंदी की शोभा (सौंदर्य) का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया है।
व्याख्या: कवि कहते हैं कि बिंदी (बिंदु/शून्य) लगाने से अंक (संख्या) दस गुना हो जाता है, यह बात तो सभी कहते हैं । लेकिन स्त्री के माथे पर (तिय लिलार) जब बिंदी लगाई जाती है, तो उसका सौन्दर्य (उदोत) अगणित गुना बढ़ जाता है । यहाँ बिंदी को गणित के शून्य और स्त्री के सौंदर्यवर्धक आभूषण दोनों रूपों में प्रस्तुत कर सौंदर्य का अत्यधिक (अतिशयोक्तिपूर्ण) वर्णन किया गया है ।
नीति के दोहे
पद्यांश 5:
बड़े न हूजै गुनन बिन, विरद बड़ाई पाय।
कहत धतूरे सौ कनक, गहनो गढ्यो न जाय ।।
प्रसंग: यह पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी पुस्तक 12′ में संकलित ‘बिहारी‘ (महाकवि बिहारी) द्वारा रचित नीति संबंधी दोहे से लिया गया है। इस दोहे में कवि यह स्पष्ट करते हैं कि बड़प्पन केवल गुणों से ही प्राप्त होता है, केवल यश या नाम से नहीं।
व्याख्या: कवि कहते हैं कि केवल यश (विरुद) और बड़ाई (प्रशंसा) पा लेने से व्यक्ति गुणों के बिना (गुनन बिन) बड़ा नहीं हो जाता । जैसे, धतूरे को भी सोना (कनक) कहते हैं, क्योंकि दोनों का एक नाम ‘कनक‘ है, लेकिन धतूरे से गहना (आभूषण) गढ़ा नहीं जा सकता । यहाँ कवि ने उदाहरण देकर स्पष्ट किया है कि बाहरी नाम या पदवी से नहीं, बल्कि आंतरिक गुणों से ही किसी का महत्व और बड़प्पन निर्धारित होता है।
पद्यांश 6:
अति अगाधु, अति औथरौ, नदी, कूपु सरु बाइ।
सौ ताकौ सागरू जहाँ जाकी प्यास बुझाइ ।।
प्रसंग: यह पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी पुस्तक 12′ में संकलित ‘बिहारी‘ (महाकवि बिहारी) द्वारा रचित नीति संबंधी दोहे से लिया गया है। इस दोहे में कवि ने किसी वस्तु के महत्व को उसके आकार से नहीं, बल्कि उपयोगिता से आँकने की नीति का उपदेश दिया है।
व्याख्या: कवि कहते हैं कि कोई जलाशय चाहे बहुत गहरा (अति अगाधु) हो या बहुत उथला (औथरो), चाहे वह नदी हो, कुआँ (कूपु) हो, तालाब (सरु) हो, या बावड़ी (बाइ) हो । वह जलाशय ही उसके लिए सागर (सौ ताकौ सागरू) के समान है, जहाँ उसकी प्यास (जाकी प्यास) बुझ जाती है । अर्थात्, किसी वस्तु का बड़प्पन उसके आकार से नहीं, बल्कि उसकी आवश्यकता पूरी करने की क्षमता (उपयोगिता) से होता है ।
पद्यांश 7:
जगत जनायौ जिहिं सकल सो हरि जान्यो नाहिं।
ज्यों आँखिन सब देखिये, आँख न देखी जाहिं ।।
प्रसंग: यह पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी पुस्तक 12′ में संकलित ‘बिहारी‘ (महाकवि बिहारी) द्वारा रचित नीति संबंधी दोहे से लिया गया है। इस दोहे में कवि उस परमपिता परमेश्वर की अनुभूति न कर पाने पर दुःख व्यक्त करते हैं, जिसने इस पूरे संसार को बनाया है।
व्याख्या: कवि कहते हैं कि जिस हरि (ईश्वर) ने इस संपूर्ण संसार (जगत सकल) को उत्पन्न (जनायौ) किया है, उस ईश्वर को मनुष्य ने जाना नहीं (जान्यो नाहिं) । इसकी तुलना आँख से करते हुए कवि कहते हैं कि जैसे (ज्यों) आँखों से सब कुछ देखा जाता है, पर आँख स्वयं को नहीं देख पाती है । यहाँ कवि ईश्वर की सर्वव्यापकता और मनुष्य की अज्ञानता को दर्शाते हैं।
पद्यांश 8:
घर घर डोलन दीन जन जन याचत जाय।
दिये लोभ चसमा चखनि, लघु पुनि बड़ो लखाय ।।
प्रसंग: यह पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी पुस्तक 12′ में संकलित ‘बिहारी‘ (महाकवि बिहारी) द्वारा रचित नीति संबंधी दोहे से लिया गया है। इस दोहे में कवि लोभ को एक बुराई बताते हुए, लोभी व्यक्ति के स्वभाव का चित्रण करते हैं।
व्याख्या: कवि कहते हैं कि दीन (गरीब) व्यक्ति घर–घर भटकते हैं और लोगों से माँगते (याचत) फिरते हैं । जब उनके नेत्रों (चखनि) पर लोभ रूपी चश्मा (चसमा) चढ़ जाता है, तो उन्हें छोटे (लघु) लोग या वस्तुएँ भी पुनः बड़े (बड़ो लखाय) दिखाई देने लगते हैं । अर्थात्, लोभ में अंधा व्यक्ति अपनी मान–मर्यादा भूलकर किसी भी छोटे से छोटे व्यक्ति के सामने भी माँगने या झुकने में संकोच नहीं करता ।
पद्यांश 9:
बढ़त बढ़त संपति सलिल, मन सरोज बढ़ि जाइ।
घटत घटत पनि ना घटै, बरू समूल कुम्हिलाइ ।।
प्रसंग: यह पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी पुस्तक 12′ में संकलित ‘बिहारी‘ (महाकवि बिहारी) द्वारा रचित नीति संबंधी दोहे से लिया गया है। इस दोहे में कवि धन (संपत्ति) के साथ मनुष्य के लोभ के बढ़ने का चित्रण करते हैं।
व्याख्या: कवि कहते हैं कि जैसे–जैसे संपत्ति (धन) रूपी जल (सलिल) बढ़ता जाता है, वैसे–वैसे मन रूपी कमल (सरोज) भी बढ़ता जाता है । परंतु जब संपत्ति रूपी जल घटने लगता है, तो मन रूपी कमल घटता नहीं है, बल्कि जड़ से ही कुम्हला (मुरझा) जाता है । अर्थात्, धन के बढ़ने पर मनुष्य का लोभ बढ़ता जाता है, लेकिन जब धन घटता है, तो लोभ नहीं घटता, बल्कि मनुष्य दुखी होकर नष्ट हो जाता है।
पद्यांश 10:
मीत न नीति गलीत हौ, जो धरियै धन जोरि।
खाए खरचें जौ बचें, तो जोरियै करोरि ।।
प्रसंग: यह पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी पुस्तक 12′ में संकलित ‘बिहारी‘ (महाकवि बिहारी) द्वारा रचित नीति संबंधी दोहे से लिया गया है। इस दोहे में कवि धन संचय करने के सही तरीके और उसके सदुपयोग पर प्रकाश डालते हैं।
व्याख्या: कवि अपने मित्र (मीत) से कहते हैं कि धन को एकत्रित (जोड़कर) करना नीति के अनुसार गलत (गलीत) है । यदि खाने और खर्च करने के बाद भी कुछ बच जाए, तो भले ही करोड़ों रुपए इकट्ठे कर लो (जोरियै करोरि) । यहाँ कवि आवश्यकतानुसार उपभोग करने के बाद ही धन संचय करने की नीति को उचित ठहराते हैं।
पद्यांश 11:
गुनी गुनी सबकै, कहैं, निगुनी गुनी न होतु।
सुन्यौ कहूँ तरू अरकतें, अरक–समानु उदोतु ।।
प्रसंग: यह पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी पुस्तक 12′ में संकलित ‘बिहारी‘ (महाकवि बिहारी) द्वारा रचित नीति संबंधी दोहे से लिया गया है। इस दोहे में कवि ने गुणों के महत्व पर बल दिया है कि केवल कहने मात्र से कोई गुणी नहीं हो जाता।
व्याख्या: कवि कहते हैं कि सब लोग किसी निर्गुणी (निगुनी) व्यक्ति को गुणी–गुणी (प्रशंसा) कहकर बुलाएँ, तो भी वह गुणी नहीं हो जाता । क्या कहीं किसी ने अरक (आक) के वृक्ष (तरू) से सूर्य (अरक) के समान प्रकाश (उदोतु) निकलते हुए सुना है? अर्थात्, जिस प्रकार आक का पेड़ सूर्य की तरह तेजस्वी नहीं हो सकता, उसी प्रकार गुणों के बिना कोई भी व्यक्ति केवल प्रशंसा से महान नहीं बन सकता।
3. अभ्यास प्रश्नोत्तर खंड
(क) लगभग 40 शब्दों में उत्तर दो:
प्रश्न 1: बिहारी के भक्ति परक दोहों में श्रीकृष्ण के किस स्वरूप का चित्रण किया गया है? वर्णन करें।
उत्तर: बिहारी के भक्ति परक दोहों में श्रीकृष्ण के श्यामवर्ण वाले (साँवले) और पीले वस्त्र (पीत पटु) धारण किए हुए सुन्दर (सलोने) स्वरूप का चित्रण किया गया है । इसके अतिरिक्त, एक दोहे में उनके उस स्वरूप का वर्णन है जो राधा की परछाईं पड़ने से हरे रंग वाले (हरित दुति) हो जाते हैं ।
प्रश्न 2: बिहारी के भक्ति परक दोहों की विशेषताएँ अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर: बिहारी के भक्ति परक दोहों में सच्ची भक्ति को महत्व दिया गया है, जहाँ बाहरी आडंबरों (जप माला, तिलक) की निंदा की गई है । दोहों में राधा से सांसारिक दुखों को दूर करने की विनती भी की गई है । इन दोहों में ब्रज भाषा का प्रयोग, भाव पूर्णता तथा संक्षिप्तता जैसे गुण मिलते हैं ।
प्रश्न 3: बिहारी के सौंदर्य चित्रण में श्री कृष्ण की तुलना किससे की गई है?
उत्तर: बिहारी के सौंदर्य चित्रण में साँवले शरीर (स्याम सलोने गात) वाले श्री कृष्ण की तुलना नीलमणि पर्वत (नीलमनि सैल) से की गई है । उनके शरीर पर ओढ़े हुए पीले वस्त्रों (पीत पटु) की तुलना प्रभात (सवेरे) के सूर्य की धूप (आतपु) से की गई है, जो नीलमणि पर्वत पर पड़ रही हो ।
प्रश्न 4: बिहारी के गुणों के महत्व को बड़प्पन के लिए आवश्यक बताते हुए क्या उदाहरण दिया है। स्पष्ट करें।
उत्तर : बिहारी ने गुणों के महत्व को बड़प्पन के लिए आवश्यक बताते हुए धतूरे का उदाहरण दिया है । वे कहते हैं कि धतूरे को भी सोना (कनक) कहा जाता है, क्योंकि दोनों का एक नाम है । पर केवल नाम या बड़ाई से वह बड़ा नहीं हो जाता, क्योंकि धतूरे से गहना नहीं गढ़ा जा सकता । बड़प्पन के लिए गुण आवश्यक हैं ।
प्रश्न 5: बिहारी के अनुसार लालची व्यक्ति का कैसा स्वभाव होता है?
उत्तर : बिहारी के अनुसार, जिस व्यक्ति के नेत्रों पर लोभ रूपी चश्मा चढ़ जाता है, उसका स्वभाव दीन (गरीब) हो जाता है । वह अपनी मान–मर्यादा भूलकर घर–घर भटकता है और लोगों से माँगता फिरता है। लोभ के कारण उसे छोटे लोग भी बड़े दिखाई देने लगते हैं ।
(ख) सप्रसंग व्याख्या करें :
प्रश्न 6: मेरी भव–बाधा हरौ… दुति होइ।
उत्तर : सप्रसंग व्याख्या:
प्रसंग: यह पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी पुस्तक 12′ में संकलित ‘बिहारी‘ (महाकवि बिहारी) द्वारा रचित भक्ति संबंधी दोहे से लिया गया है । इस दोहे में कवि चतुर राधा से अपने सांसारिक दुखों को दूर करने की प्रार्थना करते हैं ।
व्याख्या: कवि बिहारी चतुर राधा से विनती करते हैं कि वह उनके सांसारिक दुःख (भव बाधा) दूर करें । कवि कहते हैं कि वही राधा मेरी बाधाओं को दूर करें, जिनके शरीर की परछाहीं (झांई) पड़ने से श्री कृष्ण (स्यामु) हरे रंग वाले (हरित दुति) हो जाते हैं ।
प्रश्न 7: अति अगाधु …… प्यास बुझाई।
उत्तर : सप्रसंग व्याख्या:
प्रसंग: यह पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी पुस्तक 12′ में संकलित ‘बिहारी‘ (महाकवि बिहारी) द्वारा रचित नीति संबंधी दोहे से लिया गया है । इस दोहे में कवि किसी वस्तु के महत्व को उसके आकार से नहीं, बल्कि उपयोगिता से आँकने की नीति का उपदेश देते हैं 。
व्याख्या: कवि कहते हैं कि कोई जलाशय चाहे बहुत गहरा हो या बहुत उथला (औथरो), चाहे वह नदी, कुआँ, तालाब, या बावड़ी (बाइ) हो । वह जलाशय ही उस व्यक्ति के लिए सागर के समान है, जहाँ उसकी प्यास (जाकी प्यास) बुझ जाती है । इसका अर्थ है कि किसी की महत्ता उसकी उपयोगिता पर निर्भर करती है, न कि केवल उसके आकार पर ।