पाठ 1. सूरदास • विनय के पद  • वात्सल्य भाव

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पाठ 1. विनय के पद और वात्सल्य-भाव (सूरदास)

संक्षिप्त परिचय:

महाकवि सूरदास हिंदी साहित्य के भक्तिकाल की कृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि हैं। प्रस्तुत पद सूरदास के प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सूरसागर’ से लिए गए हैं। इन पदों में कवि ने भक्ति, वात्सल्य और श्रृंगार का अद्भुत वर्णन किया है। जहाँ ‘विनय के पद’ में ईश्वर की महिमा और भक्त की विनम्रता दर्शायी गई है, वहीं ‘वात्सल्य-भाव’ में बालकृष्ण की बाल लीलाओं और उनकी मनमोहक शिकायतों का स्वाभाविक चित्रण किया गया है ।

पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या

1. विनय के पद

(क) चरण कमल बन्दौ हरि राई।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंधै, अंधे को सब कुछ दरसाई।
बहिरौ सुनै मूक पुनि बोलै, रंक चलै सिर छत्र धराई।
सूरदास स्वामी करुणामय, बार बार बन्दौं तिहिं पाई ।।

प्रसंग: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी पुस्तक 12’ में संकलित ‘विनय के पद’ नामक कविता से लिया गया है। इसके रचयिता महाकवि सूरदास जी हैं। इस पद में सूरदास जी ने अपने आराध्य श्री कृष्ण के चरणों की वंदना करते हुए उनकी असीम कृपा का वर्णन किया है।

व्याख्या: सूरदास जी श्री कृष्ण के कमल रूपी चरणों की वंदना करते हुए कहते हैं कि हे प्रभु! आपके चरण कमल के समान कोमल और पवित्र हैं। आपकी कृपा का प्रभाव इतना अद्भुत है कि यदि आपकी दया हो जाए, तो लंगड़ा व्यक्ति भी बड़े-बड़े पर्वतों को लांघ सकता है और अंधे व्यक्ति को सब कुछ दिखाई देने लगता है। आपकी कृपा से बहरा व्यक्ति सुनने लगता है और गूँगा व्यक्ति फिर से बोलने लगता है। यहाँ तक कि एक गरीब (रंक) व्यक्ति भी राजा बनकर अपने सिर पर छत्र धारण कर लेता है। सूरदास जी कहते हैं कि ऐसे करुणामय स्वामी के चरणों की मैं बार-बार वंदना करता हूँ।

(ख) प्रभु मोरे अवगुन चित न धरौ
समदरसी है नाम तिहारो, चाहो तो पार करौ ।।
इक नदिया इक नार कहावत, मैलोहि नीर भरौ।
जब दोनों मिलि एक बरन भये, सुरसरि नाम परौ ।।
इक लोहा पूजा में राखत, इक घर बधिक परो।
पारस गुन अवगुन नहिं चितवत कंचन करत खरो ।।
यह माया भ्रम जाल कहावत सूरदास सगरो ।
अबकि बेर मोहिं पार उतारो नहिं प्रन जात टरो ।।

प्रसंग: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी पुस्तक 12’ में संकलित ‘विनय के पद’ नामक कविता से लिया गया है। इसके रचयिता महाकवि सूरदास जी हैं। इसमें भक्त भगवान से अपने दोषों को अनदेखा कर उद्धार करने की प्रार्थना कर रहा है।

व्याख्या: सूरदास जी अपने प्रभु से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि हे प्रभु! आप मेरे अवगुणों (दोषों) पर ध्यान मत दीजिए। आपका नाम ‘समदर्शी’ है, अर्थात आप सभी को समान भाव से देखते हैं, इसलिए आप चाहें तो मुझे भी इस भवसागर से पार लगा सकते हैं। जिस प्रकार एक नदी होती है और एक गंदा नाला होता है, जिसमें मैला पानी भरा होता है, लेकिन जब दोनों गंगा (सुरसरि) में मिल जाते हैं, तो दोनों एक ही रंग और रूप होकर पवित्र हो जाते हैं।

उसी प्रकार, एक लोहा पूजा के काम आता है और दूसरा कसाई के घर मांस काटने के काम आता है, लेकिन पारस पत्थर दोनों के गुण-दोषों को नहीं देखता और स्पर्श करते ही दोनों को खरा सोना बना देता है। सूरदास जी कहते हैं कि यह संसार माया और भ्रम का जाल है। हे प्रभु! अपनी प्रतिज्ञा की लाज रखते हुए, इस बार मुझे इस संसार रूपी सागर से पार उतार दीजिए।

2. वात्सल्य-भाव

(ग) खेलन अब मेरी जात बलैया।
जबहिं मोहि देखत लरिकन संग तबहिं खिझत बल भैया ।।
मोसों कहत तात वसुदेव को देवकी तेरी मैया।
मोल लियो कछु दे वसुदेव को करि करि जतन बहैया ।।
अब बाबा कहि कहत नंद को जसुमति को कहै मैया।
ऐसेहि कहि सब मोहिं खिजावत तब उठि चलौं खिसैया ।।
पाछे नन्द सुनत हैं ठाढ़े हँसत हँसत उर लैया।
सूरनन्द बलरामहिं धिरक्यो सुनि मन हरख कन्हैया ।।

प्रसंग: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी पुस्तक 12’ में संकलित ‘वात्सल्य-भाव’ नामक कविता से लिया गया है। इसके रचयिता सूरदास जी हैं। इस पद में बालकृष्ण अपनी माता यशोदा से बड़े भाई बलराम द्वारा चिढ़ाए जाने की शिकायत कर रहे हैं।

व्याख्या: बालकृष्ण माँ यशोदा से कहते हैं कि मैया! अब मैं खेलने नहीं जाऊँगा। जब भी बलराम भैया मुझे ग्वाल-बालों (लड़कों) के साथ देखते हैं, तो वे मुझे चिढ़ाने लगते हैं। वे मुझसे कहते हैं कि तेरे पिता तो वसुदेव हैं और तेरी असली माँ देवकी है। नन्द बाबा ने तो तुझे कुछ देकर मोल (खरीद) लिया है। वे तरह-तरह की बातें करके मुझे बहकाते हैं।

बलराम भैया कहते हैं कि नन्द बाबा भी गोरे हैं और यशोदा मैया भी गोरी हैं, लेकिन तू सांवला (काला) है, इसलिए तू इनका पुत्र कैसे हो सकता है?। उनकी ऐसी बातें सुनकर सभी ग्वाल-बाल मुझ पर हँसते हैं और मुझे खिसियाना पड़ता है, इसलिए मैं खेल छोड़कर चला आता हूँ। सूरदास जी कहते हैं कि नन्द बाबा पीछे खड़े होकर यह सब सुन रहे थे। वे हँसते-हँसते कृष्ण को हृदय से लगा लेते हैं और बलराम को डाँटते (धिरकारते) हैं। यह सुनकर कन्हैया (कृष्ण) मन ही मन बहुत प्रसन्न होते हैं।

(घ) मैया मेरी, मैं नहिं माखन खायो।
भोर भयो गैयन के पाछे मधुबन मोहि पठायो।
चार पहर बंसीबट भटक्यो साँझ परे घर आयो ।।
मैं बालक बहियन को छोटो छींको केहि बिधि पायो ।।
ग्वाल बाल सब बैर परे हैं बरबस मुख लपटायो।
तू जननी मति की अति भोरी इनके कहे पतियायो ।
जिय तेरे कछु उपजि है जान परायो जायो ।।
यह ले अपनी लकुटि कमरिया बहुतहि नाच नचायो।
सूरदासतब बिहँसि जसोदा लै उर कण्ठ लगायो ।।

प्रसंग: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी पुस्तक 12’ में संकलित ‘वात्सल्य-भाव’ नामक कविता से लिया गया है। इसके रचयिता सूरदास जी हैं। इस पद में श्री कृष्ण माखन चोरी के आरोप पर माता यशोदा के सामने अपनी सफाई पेश कर रहे हैं।

व्याख्या: श्री कृष्ण माँ यशोदा से कहते हैं— “हे मेरी मैया! मैंने माखन नहीं खाया है। सुबह होते ही तुमने मुझे गायों के पीछे मधुबन भेज दिया था। मैं दिन भर (चार पहर) घने जंगल (बंसीवट) में भटकता रहा और अब शाम होने पर घर लौटा हूँ। मैं तो छोटा-सा बालक हूँ और मेरी बाहें भी बहुत छोटी हैं, जिस छींके पर माखन रखा था, मैं उसे कैसे पा सकता हूँ?

दरअसल, ये सभी ग्वाल-बाल मेरे दुश्मन (बैरी) बन गए हैं। इन्होंने जबरदस्ती मेरे मुँह पर माखन लगा दिया है। हे मैया! तू मन की बहुत भोली है, जो इनकी बातों में आ गई। तू मुझे पराया समझती है, इसीलिए तेरे मन में मेरे प्रति भेद उत्पन्न हो गया है”। इतना कहकर श्री कृष्ण ने अपनी लकड़ी और कंबल रख दिया और कहा कि तुमने मुझे बहुत नाच नचाया। सूरदास जी कहते हैं कि कृष्ण की ऐसी भोली और चतुराई भरी बातें सुनकर यशोदा मैया हँस पड़ीं और उन्होंने कृष्ण को गले से लगा लिया।

अभ्यास प्रश्न-उत्तर

(क) लगभग 40 शब्दों में उत्तर दें:

प्रश्न 1. ‘विनय के पदके आधार पर सूरदास की भक्ति भावना को अपने शब्दों में स्पष्ट करें?

उत्तर: सूरदास की भक्ति भावना विनय और समर्पण से परिपूर्ण है। वे अपने प्रभु को करुणामय और ‘समदर्शी’ मानते हैं जो गुण-दोष देखे बिना भक्त का उद्धार करते हैं। सूरदास स्वयं को अवगुणी मानते हुए भगवान से भवसागर पार उतारने की विनम्र प्रार्थना करते हैं ।

प्रश्न 2. ‘खेलन अब मेरी जात बलैयामें श्री कृष्ण खेलने क्यों नहीं जाना चाहते हैं?

उत्तर: श्री कृष्ण खेलने इसलिए नहीं जाना चाहते क्योंकि बलराम भैया उन्हें चिढ़ाते हैं। वे कहते हैं कि नन्द और यशोदा गोरे हैं, जबकि तू काला है, इसलिए तू उनका बेटा नहीं बल्कि खरीदा हुआ है। यह सुनकर ग्वाल-बाल भी उन पर हँसते हैं।

प्रश्न 3. ‘जिय तेरे कछु भेद उपजि है जान परायो जायोपंक्ति में श्री कृष्ण माँ यशोदा से क्या कहना चाहते हैं? ‘परायो जायोकी व्याख्या करते हुए श्री कृष्ण जन्म की घटना का वर्णन करो।

उत्तर: श्री कृष्ण माँ यशोदा को भावनात्मक रूप से ‘ब्लैकमेल’ करते हुए कहना चाहते हैं कि तुम मुझे पराया समझती हो, इसीलिए मेरी बात न मानकर ग्वालों की बात मान रही हो। ‘परायो जायो’ का संकेत इस ओर है कि कृष्ण का जन्म वास्तव में देवकी-वसुदेव के यहाँ हुआ था, नन्द-यशोदा के यहाँ नहीं ।

प्रश्न 4. सूरदास ने बाल क्रीड़ा का मनोवैज्ञानिक रूप से कैसे वर्णन किया है?

उत्तर: सूरदास ने बाल मनोविज्ञान का सजीव वर्णन किया है। बड़े भाई द्वारा छोटे को चिढ़ाना (जैसे ‘तुझे मोल लिया है’), खेल में हारने पर बहाने बनाना, चोरी पकड़े जाने पर झूठी सफाई देना और माँ को अपनी बातों में फँसाकर सजा से बचना, ये सब बाल सुलभ चेष्टाएँ अत्यंत स्वाभाविक हैं ।

(ख) सप्रसंग व्याख्या करें:

प्रश्न 5. चरण कमल बन्दौ हरि राई

उत्तर: (विद्यार्थी ‘विनय के पद’ के पहले पद्यांश (क) की व्याख्या देखें।)

इस पंक्ति में सूरदास जी भगवान श्री कृष्ण के कमल रूपी कोमल और पवित्र चरणों की वंदना कर रहे हैं, जिनकी कृपा से असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं।

प्रश्न 6. खेलन अब मेरी जात बलैया ……….. हरख कन्हैया।।

उत्तर: (विद्यार्थी ‘वात्सल्य-भाव’ के पहले पद्यांश (ग) की व्याख्या देखें।)

इस पूरे पद में बालकृष्ण अपनी माँ से बलराम की शिकायत करते हैं कि वे उन्हें ‘गोद लिया हुआ’ कहकर चिढ़ाते हैं। अंत में, नन्द बाबा द्वारा बलराम को डाँटने पर कृष्ण मन ही मन प्रसन्न हो जाते हैं।

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