पाठ 4. गुरु गोबिंद सिंह (श्री गुरु गोबिंद सिंह)
श्री गुरु गोबिंद सिंह जी हिंदी साहित्य के मध्यकाल के प्रमुख भक्त एवं वीर कवि हुए हैं। वे सिक्खों के दसवें गुरु थे, जिनका जन्म 22 दिसम्बर सन् 1666 ई० को पटना नगर में हुआ था। इन्होंने अन्याय के विरुद्ध युद्ध किया और धर्म एवं मानवता की रक्षा के लिए ‘ख़ालसा पंथ‘ की स्थापना की। इनका जीवन त्याग का अनुपम उदाहरण है। इनकी साहित्यिक रचनाएँ ‘दशमग्रन्थ‘ में संकलित हैं, जिनमें छंदों की विविधता और भाषा की ओजस्विता (तेजस्विता) प्रमुख विशेषताएँ हैं।
कविताओं का सारगर्भित परिचय
प्रस्तुत संकलन में गुरु गोबिंद सिंह जी के कवित्त एवं सवैया छंद शामिल किए गए हैं, जो वर–याचना, अकाल उस्तुति, साँसारिक नश्वरता व भक्ति भावना को प्रकट करते हैं। ‘वर याचना‘ में कवि ने शुभ कर्मों के लिए लड़ते हुए युद्ध भूमि में प्राण अर्पण करने का वर माँगा है। ‘अकाल उस्तुति‘ में ईश्वर के निर्गुण, निराकार और सर्वव्यापी स्वरूप का वर्णन है। ‘साँसारिक नश्वरता‘ में संसार के क्षणभंगुर स्वरूप का बोध कराया गया है, जबकि ‘भक्ति भावना‘ में ईश्वर को सर्वपालक और विकारों से रहित बताकर मानव को प्रभु पर विश्वास रखने का संदेश दिया गया है।
2. सप्रसंग व्याख्या
वर याचना (सवैया)
देह सिवा बर मोहि इहै, सुभ कर्मन ते कबहूँ न टरों।
न डरों अरि सों जब जाइ लरों, निसचे करि अपनी जीत करों
अरु सिख हों अपने ही मन को, इह लालच हउ गुन तउ उचरों।
जब आवकी अउध निदान बनै, अति ही रन मैं तब जूझ मरों ।।
प्रसंग: यह पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी पुस्तक 12′ में संकलित ‘गुरु गोबिंद सिंह‘ द्वारा रचित ‘वर याचना‘ नामक सवैया से लिया गया है। इसमें कवि ने पारब्रह्म की शक्ति से शुभ कर्म करने और अन्याय के विरुद्ध युद्ध में अंतिम श्वास तक लड़ते रहने का वरदान माँगा है।
व्याख्या: गुरु गोबिंद सिंह जी पारब्रह्म की शक्ति (सिवा) से यह वरदान माँगते हैं कि वे शुभ कर्मों को करने से कभी पीछे न हटें। वे कहते हैं कि जब भी वे शत्रु (अरि) से युद्ध करने जाएँ, तो वे भयभीत न हों और अपने मन में निश्चय करके ही अपनी जीत करें। वे आगे कहते हैं कि वे अपने मन को नियंत्रित कर, इसी लालच (इच्छा) से मैं (हउ) तेरे (तउ) गुणों का उच्चारण (सिख हों… गुन उचरों) करता रहूँ। अंत में, वे प्रार्थना करते हैं कि जब उनकी आयु की अवधि (अउध) पूरी हो, तो वे खूब (अति ही) युद्धभूमि (रन) में संघर्ष (जूझ) करते हुए ही प्राण त्यागें (मरों)।
अकाल उस्तुति (सवैया)
रूप राग न रेख रंग, न जनम मरन बिहीन ।
आदि नाथ अगाध पुरख, सुधरम करम प्रबीन।
जन्त्र मन्त्र न तन्त्र जाको, आदि पुरख अपार।
हसत कीट बिखै बसै, सब ठउर मै निरधार ।।
प्रसंग: यह पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी पुस्तक 12′ में संकलित ‘गुरु गोबिंद सिंह‘ द्वारा रचित ‘अकाल उस्तुति‘ नामक अंश से लिया गया है। इस पद्यांश में कवि ने अकाल पुरुष (ईश्वर) के निर्गुण, निराकार तथा सर्वव्यापी स्वरूप का वर्णन किया है।
व्याख्या: कवि कहते हैं कि ईश्वर का कोई रूप नहीं है, कोई राग (आकर्षण) नहीं है, कोई रेखा (आकृति) या रंग नहीं है, और वह जन्म–मरण से रहित है। वह आदि नाथ (प्रथम स्वामी), अगाध (असीम) पुरुष है, तथा सुंदर धर्म और कर्मों में प्रवीण (निपुण) है। उस अपार आदि पुरुष को प्राप्त करने के लिए किसी यंत्र, मंत्र या तंत्र की आवश्यकता नहीं है। वह छोटे से कीट (हसत कीट) से लेकर हाथी तक, सबके बीच (बिखै) निवास करता है और सभी स्थानों (ठउर) में आधार रहित (निरधार) रूप से विद्यमान है।
साँसारिक नश्वरता (कवित्त)
जोगी जती ब्रह्मचारी बड़े–बड़े छत्रधारी,
छत्र ही की छाया कई कोस लौ चलत हैं।
बड़े–बड़े राजन के दाबत फिरत देस,
बड़े–बड़े राजनि के दर्प को दलत हैं।
मान से महीप औ दिलीप के से छत्रधारी,
बड़ो अभिमान भुज दंड को करत हैं।
दारा से दिलीसर, दर्जोधन से मानधारी,
भोग–भोग भूम अन्त भूम मै मिलत हैं।।
प्रसंग: यह पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी पुस्तक 12′ में संकलित ‘गुरु गोबिंद सिंह‘ द्वारा रचित ‘साँसारिक नश्वरता‘ नामक कवित्त से लिया गया है। इसमें कवि ने इस संसार की क्षणभंगुरता और नश्वरता का ज्ञान कराया है, जहाँ बड़े–बड़े पराक्रमी भी अंत में मिट्टी में मिल जाते हैं।
व्याख्या: कवि कहते हैं कि चाहे वे योगी, जती (संयमी), ब्रह्मचारी हों, या बड़े–बड़े छत्रधारी (राजा–महाराजा) हों, जिनकी छाया (छत्र ही की छाया) कई कोस तक चलती है। ये राजा बड़े–बड़े देशों को दबाते फिरते हैं और अन्य बड़े–बड़े राजाओं के घमंड (दर्प) को नष्ट (दलत हैं) कर देते हैं। मान और दिलीप जैसे प्रसिद्ध राजा (महीप) और दारा जैसे दिल्ली के बलवान शासक (दिलीसर), तथा दुर्योधन (दर्जोधन) जैसे अत्यधिक अभिमानी (मानधारी) पुरुष जो अपनी भुजाओं की शक्ति (भुज दंड) पर बड़ा अभिमान करते हैं, वे सब इस पृथ्वी पर भोग–विलास (भोग–भोग भूम) करने के बाद अंत में मिट्टी (भूम) में मिल जाते हैं।
भक्ति भावना (सवैया) पंक्तियाँ:
काम न क्रोध न लोभ न मोह न रोग न सोग न भोग न भै है।
देह बिहीन सनेह सभो तन, नेह बिरकत अगेह अछे है।
जान को देत अजान को देत, जमीन को देत जमान को दै है।
काहे को डोलत है तुमरी सुधि, सुन्दर सिरी पदमा पति लै है ।।
प्रसंग: यह पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी पुस्तक 12′ में संकलित ‘गुरु गोबिंद सिंह‘ द्वारा रचित ‘भक्ति भावना‘ नामक सवैया से लिया गया है। इसमें कवि ने ईश्वर को सर्वपालक बताते हुए, मनुष्य को उस पर विश्वास रखने और व्यर्थ न भटकने का संदेश दिया है।
व्याख्या: कवि ईश्वर के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वह प्रभु काम, क्रोध, लोभ, मोह, रोग, शोक, भोग और भय से रहित है। उसका कोई शरीर (देह बिहीन) नहीं है, वह सभी शरीरों से स्नेह (सनेह सभो तन) करता है, पर स्वयं स्नेह से विरक्त (नेह बिरकत) रहता है, वह बिना घर (अगेह) वाला है और अक्षय (अछे है) है, अर्थात कभी नष्ट नहीं होता। वह ज्ञानी (जान) को भी देता है और अज्ञानी (अजान) को भी देता है, वह धरती (जमीन) को भी देता है और संपूर्ण सृष्टि (जमान) को भी देता है। कवि मनुष्य से कहते हैं कि तुम क्यों भटक रहे हो (काहे को डोलत है)? तुम्हारी सुध (चिंता) तो सुंदर परमात्मा (सिरी पदमा पति) स्वयं ले लेगा।
3. अभ्यास प्रश्नोत्तर
(क) लगभग 40 शब्दों में उत्तर दो:
प्रश्न 1: ‘गुरु गोबिंद सिंह‘ ने वर याचना के अन्तर्गत क्या वर माँगा है?
उत्तर: गुरु गोबिंद सिंह जी ने वर याचना के अंतर्गत पारब्रह्म की शक्ति से यह वर माँगा है कि वे शुभ कर्मों को करने से कभी पीछे न हटें। जब भी वे शत्रु से युद्ध करें, तो जीत का निश्चय कर लड़ें और जब उनकी आयु पूर्ण हो, तो वे युद्धभूमि में ही संघर्ष करते हुए वीरगति को प्राप्त हों।
प्रश्न 2: ‘अकाल उस्तुति‘ में गुरु जी ने ईश्वर के स्वरूप का वर्णन कैसे किया है?
उत्तर: ‘अकाल उस्तुति‘ में गुरु जी ने ईश्वर के निर्गुण और निराकार स्वरूप का वर्णन किया है। वे कहते हैं कि ईश्वर का कोई रूप, आकृति, या रंग नहीं है। वह जन्म–मरण से रहित है, आदि नाथ है, और जंत्र–मंत्र से परे है। वह छोटे से कीट से लेकर सभी स्थानों में सर्वव्यापी रूप से निवास करता है।
प्रश्न 3: गुरु जी ने ‘साँसारिक नश्वरता‘ के अंदर किन–किन राजा, महाराजा, अभिमानी तथा बलि पुरुषों के उदाहरण दिए हैं, वर्णन करें।
उत्तर: गुरु जी ने योगी, जती, ब्रह्मचारी, और बड़े–बड़े छत्रधारी राजाओं का उदाहरण दिया है। विशिष्ट राजाओं में उन्होंने मान और दिलीप जैसे क्षत्रधारियों का, तथा दारा जैसे दिल्ली के बलवान शासक और दुर्योधन (दर्जोधन) जैसे अभिमानी पुरुषों का उदाहरण दिया है। वे कहते हैं कि ये सभी अंत में मिट्टी में मिल जाते हैं।
प्रश्न 4: ‘भक्ति भावना‘ ने गुरु जी ने मानव को प्रभु पर विश्वास रखने व अडिग रहने के लिए क्या सन्देश दिया है?
उत्तर: ‘भक्ति भावना‘ में गुरु जी ने मानव को यह संदेश दिया है कि प्रभु काम, क्रोध, लोभ आदि विकारों से रहित और अक्षय है। वह ज्ञानी और अज्ञानी, धरती और सृष्टि सबको देता है, इसलिए मनुष्य को व्यर्थ नहीं भटकना चाहिए। यदि मनुष्य प्रभु पर अडिग विश्वास रखेगा तो वह सुंदर परमात्मा (पदमा पति) स्वयं उसकी सुध (चिंता) ले लेगा।
(ख) सप्रसंग व्याख्या करें :
प्रश्न 5: काम न क्रोध न लोभ न मोह… पति लै है।।
उत्तर : सप्रसंग व्याख्या:
प्रसंग: यह पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी पुस्तक 12′ में संकलित ‘गुरु गोबिंद सिंह‘ द्वारा रचित ‘भक्ति भावना‘ नामक सवैया से लिया गया है। इसमें कवि ने परमात्मा को सर्वपालक, निर्विकार और अक्षय बताते हुए मानव को उस पर विश्वास रखने का संदेश दिया है।
व्याख्या: कवि कहते हैं कि ईश्वर काम, क्रोध, लोभ, मोह, रोग, शोक, भोग और भय से पूरी तरह मुक्त है। उसका कोई शारीरिक अस्तित्व (देह बिहीन) नहीं है, वह सब पर स्नेह रखता है, पर स्वयं स्नेह से विरक्त है, घर–बार से रहित और कभी नष्ट न होने वाला (अक्षय) है। वह प्रभु ज्ञानी और अज्ञानी, धरती और संपूर्ण सृष्टि को देने वाला है। इसलिए, कवि मनुष्य से प्रश्न करते हैं कि तुम व्यर्थ क्यों भटकते हो? तुम्हारी देखभाल और चिंता तो सुंदर परमात्मा (पदमा पति) स्वयं ही कर लेगा।
प्रश्न 6: देहि सिवा बर मोहि इहै ……… जूझ मरों ।।
उत्तर : सप्रसंग व्याख्या:
प्रसंग: यह पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी पुस्तक 12′ में संकलित ‘गुरु गोबिंद सिंह‘ द्वारा रचित ‘वर याचना‘ नामक सवैया से लिया गया है। इसमें कवि ने शुभ कर्मों के प्रति निष्ठा और वीरता से लड़ते हुए बलिदान देने का वरदान माँगा है, जो उनके वीर रस की भावना को दर्शाता है।
व्याख्या: गुरु गोबिंद सिंह जी परमात्मा (सिवा) से यह वरदान माँगते हैं कि वे शुभ और उत्तम कर्मों को करने के मार्ग से कभी विचलित न हों। जब भी वे शत्रुओं से युद्ध करने जाएँ, तो उनके मन में भय न हो और वे निश्चय करके ही अपनी विजय सुनिश्चित करें। वे यह भी कहते हैं कि वे अपने मन को नियंत्रित करें और इसी इच्छा (लालच) से वे ईश्वर के गुणों का बखान करते रहें। अंत में उनकी यह अंतिम कामना है कि जब उनकी आयु पूर्ण हो जाए, तो वे युद्ध के मैदान (रन) में खूब (अति ही) संघर्ष करते हुए वीरगति को प्राप्त हों।