9. साँप और जो पुल बनायेंगे (सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय‘) 📜
प्रस्तुत पाठ में प्रयोगवादी कविता के प्रमुख कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय‘ की दो प्रसिद्ध लघु कविताएँ, ‘साँप‘ और ‘जो पुल बनायेंगे‘ संकलित हैं। कविता ‘साँप‘ के माध्यम से कवि ने आधुनिक युग के तथाकथित ‘सभ्य‘ और ‘नगरी‘ समाज की आंतरिक विषाक्तता पर व्यंग्य किया है, जो अति भौतिकतावाद का मुखौटा ओढ़े हुए है । यह कविता कवि के संकलन ‘इन्दू धनुष रौंदे हुए ये‘ से ली गई है । दूसरी कविता, ‘जो पुल बनायेंगे‘, में आधुनिक युग के उस सत्य को प्रकट किया गया है, जहाँ निर्माताओं का इतिहास में नाम नहीं आता, जो कि नींव की ईंट की भूमिका को नज़रअंदाज़ करने के समान है । यह कविता कवि के संकलन ‘पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ‘ से ली गई है ।
कविताओं के पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या 📝
कविता : साँप
पद्यांश 1
साँप !
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूहूँ (उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डसना
विष कहाँ पाया?
प्रसंग
:प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी पुस्तक 12′ में संकलित कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय‘ द्वारा रचित कविता ‘साँप‘ से लिया गया है। यह कविता अति भौतिकतावाद के मुखौटे ओढ़े हुए तथाकथित सभ्य नगरी समाज पर एक करारा व्यंग्य है।
व्याख्या
:कवि ‘साँप‘ (जिसका प्रतीकात्मक अर्थ ईर्ष्या रखने वाला, कथित सभ्य नागरिक है) को संबोधित करते हुए कहता है कि तुम (साँप) को अभी तक सभ्य होना नहीं आया है, और न ही तुम्हें नगर या शहर में रहने का तरीका (शहरी सभ्यता) आया है। कवि प्रश्न करता है (यह जानते हुए भी कि वह उत्तर नहीं देगा) कि जब तुम्हें सभ्य समाज का कोई गुण नहीं आया, तो फिर तुमने यह डसने का तरीका (दूसरों को आहत करने का स्वभाव) कैसे सीख लिया? और यह ज़हर (विष, ईर्ष्या, दुर्भावना) तुम्हें कहाँ से प्राप्त हुआ? यहाँ कवि अप्रत्यक्ष रूप से यह व्यंग्य कर रहा है कि, जो लोग सभ्य होने का दावा करते हैं, वे साँप से भी अधिक विषैले (ईर्ष्यालु, द्वेषी) हैं, क्योंकि साँप जंगल में रहता है और उसने शहर में बसना नहीं सीखा, पर इन कथित सभ्य लोगों ने शहर में रहकर भी विषैले स्वभाव को नहीं त्यागा है।
कविता : जो पुल बनायेंगे
पद्यांश 1
जो पुल बनायेंगे
वे अनिवार्यत :
पीछे रह जायेंगे।
प्रसंग
:प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी पुस्तक 12′ में संकलित कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय‘ द्वारा रचित कविता ‘जो पुल बनायेंगे‘ से लिया गया है। इस कविता में कवि ने आधुनिक युग के इस सत्य को उजागर किया है कि निर्माण करने वाले लोगों को इतिहास में वह महत्व नहीं मिलता जिसके वे हकदार हैं ।
व्याख्या
:कवि कहता है कि जो लोग पुल का निर्माण करते हैं (यहाँ पुल सभ्यता, विकास या किसी बड़े कार्य के आधारभूत निर्माण का प्रतीक है), वे निश्चित रूप से (अनिवार्यतः) पीछे ही रह जायेंगे । इसका अर्थ है कि निर्माता पर्दे के पीछे ही गुमनाम रह जाते हैं, जबकि उनके बनाए मार्ग पर चलकर विजय प्राप्त करने वाले लोग इतिहास में महत्वपूर्ण हो जाते हैं। यह तथ्य आधुनिक युग की एक बड़ी त्रासदी है, जहाँ नींव की ईंट (निर्माता) की भूमिका को अनदेखा कर दिया जाता है।
पद्यांश 2
सेनाएँ हो जायेंगी पार
मारे जायेंगे रावण
जयी होंगे राम,
जो निर्माता रहे
इतिहास में
बन्दर कहलायेंगे।
प्रसंग
:यह पद्यांश भी कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय‘ की कविता ‘जो पुल बनायेंगे‘ से ही लिया गया है, जिसमें कवि राम, रावण और बन्दर के प्राचीन प्रतीकों का उपयोग करके आधुनिक युग के सत्य को स्पष्ट कर रहे हैं ।
व्याख्या
:कवि पुल–निर्माण के परिणाम को प्राचीन कथा के माध्यम से समझाते हैं। वे कहते हैं कि जब पुल बन जाएगा, तो सेनाएं (जो जीतने के लिए आई हैं) उसे पार करके अपने गंतव्य तक पहुँच जाएंगी । युद्ध होगा, जिसमें रावण (बुराई का प्रतीक) मारा जाएगा , और राम (विजेता, अच्छाई का प्रतीक) जयी (विजेता) होंगे । परंतु, इस विजय का आधार बनने वाले, जो वास्तव में पुल के निर्माता रहे, वे इतिहास में केवल ‘बन्दर‘ (सामान्य, कम महत्व वाले) के नाम से जाने जाएंगे । कवि यहाँ यह स्पष्ट कर रहे हैं कि शक्तिशाली और विजयी व्यक्ति ही इतिहास में पूजे जाते हैं, जबकि आधारभूत कार्य करने वाले गुमनाम, गौण या उपेक्षित रह जाते हैं।
अभ्यास के प्रश्नों के उत्तर 🧠
(क) लगभग 40 शब्दों में उत्तर दें:
प्रश्न 1. साँप कविता का उद्देश्य स्पष्ट करें।
उत्तर: साँप कविता का मुख्य उद्देश्य तथाकथित ‘सभ्य‘ और ‘नगरी‘ कहे जाने वाले समाज पर तीखा व्यंग्य करना है। कवि यह स्पष्ट करना चाहता है कि अति भौतिकतावाद का मुखौटा पहने हुए यह शहरी समाज भीतर से कितना विषैला (ईर्ष्यालु और द्वेषी) है, जिसने बिना किसी प्राकृतिक कारण के डसने (हानि पहुँचाने) का स्वभाव सीख लिया है।
प्रश्न 2. साँप कविता तथाकथित सभ्य व नगर समाज पर एक करारी चोट है। आप इससे कहाँ तक सहमत है?
उत्तर: मैं इस कथन से पूरी तरह सहमत हूँ। कविता शहरी समाज की खोखली सभ्यता को उजागर करती है, जो बाहर से भले ही सुसंस्कृत दिखे, लेकिन ईर्ष्या, द्वेष और स्वार्थ के ‘विष‘ से भरी है । कवि यह प्रश्न करके कि ‘तुम सभ्य तो हुए नहीं‘, आधुनिक नगर समाज की आंतरिक विषाक्तता पर करारी चोट करता है।
प्रश्न 3. ‘जो पुल बनायेंगे‘ कविता में कवि ने प्राचीन प्रतीकों के माध्यम से आज के युग सत्य को प्रकट किया है, स्पष्ट करें।
उत्तर: ‘जो पुल बनायेंगे‘ कविता में कवि ने राम, रावण और बन्दर के प्राचीन प्रतीकों का उपयोग किया है । पुल बनाने वाले बन्दर (निर्माता) उस आधुनिक युग के गुमनाम कारीगरों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो आधारभूत कार्य करते हैं। विजय प्राप्त करने वाले राम (शासक/सत्ता) इतिहास में जय प्राप्त करते हैं, जबकि पुल बनाने वाले पीछे रह जाते हैं और उनका योगदान अनदेखा कर दिया जाता है ।
प्रश्न 4. साँप कविता का केन्द्रीय भाव लिखें।
उत्तर: साँप कविता का केन्द्रीय भाव आधुनिक नागरिक समाज की विडम्बना को प्रकट करना है। कवि व्यंग्य करता है कि जिस डसने के ‘विष‘ को साँप ने नहीं त्यागा, उसे ‘सभ्य‘ मनुष्य ने कहाँ से प्राप्त कर लिया। इसका मूल संदेश यह है कि अति–भौतिकतावादी शहर में रहने वाला व्यक्ति अपने भीतर ईर्ष्या और द्वेष का विष भरकर आंतरिक रूप से विषैला हो चुका है, जबकि वह स्वयं को सभ्य कहता है।
प्रश्न 5. ‘जो पुल बनायेंगे‘ कविता का भाव अपने शब्दों में लिखो।
उत्तर: ‘जो पुल बनायेंगे‘ कविता का भाव यह है कि किसी भी महान कार्य या सफलता के पीछे जो लोग आधारभूत निर्माण (पुल बनाने जैसा कार्य) करते हैं, वे अनिवार्यतः (निश्चित रूप से) इतिहास के पन्नों में गुमनाम रह जाते हैं । कवि राम और बन्दर का उदाहरण देकर बताता है कि विजय का श्रेय नायक को मिलता है, जबकि निर्माता को उसका उचित स्थान या सम्मान नहीं मिलता; यह आधुनिक युग की एक बड़ी त्रासदी है ।
(ख) सप्रसंग व्याख्या करें :
प्रश्न– 6. साँप ! तुम सभ्य तो हुए नहीं ………… विष कहाँ पाया?
उत्तर– यह सप्रसंग व्याख्या ऊपर ‘1. साँप‘ शीर्षक के अंतर्गत दी गई है।
प्रश्न– 7. जो पुल बनायेंगे………. बन्दर कहलायेंगे।
उत्तर– यह सप्रसंग व्याख्या ऊपर ‘2. जो पुल बनायेंगे‘ शीर्षक के अंतर्गत दी गई है।