पाठ 16: आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
(निबंध: क्या निराश हुआ जाए?)
(क) लगभग 60 शब्दों में उत्तर दें
प्रश्न 1. आजकल चिंता का कारण क्या है?
उत्तर: आजकल समाज में चोरी, ठगी, तस्करी, भ्रष्टाचार और डकैती के समाचार निरंतर मिल रहे हैं। ऐसा माहौल बन गया है कि हर आदमी को संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है, और दोषों को बढ़ा–चढ़ाकर दिखाया जा रहा है। इस कारण ऐसा प्रतीत होता है कि देश में कोई ईमानदार व्यक्ति बचा ही नहीं है, और यही स्थिति चिंता का विषय है।
प्रश्न 2. जीवन के महान मूल्यों के बारे में लोगों की आस्था क्यों हिलने लगी है?
उत्तर: आजकल ईमानदारी से मेहनत करके जीविका चलाने वाले भोले–भाले श्रमजीवी पिस रहे हैं, जबकि झूठ और फ़रेब का रोजगार करने वाले सफल हो रहे हैं। इस माहौल में ईमानदारी को मूर्खता का पर्याय समझा जाने लगा है। इस निराशाजनक स्थिति के कारण सत्य, दया, और कर्तव्यनिष्ठा जैसे जीवन के महान मूल्यों के बारे में लोगों की आस्था (विश्वास) हिलने लगी है.
प्रश्न 3. वे कौन से विकार हैं जो मनुष्य में स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहते हैं?
उत्तर: मनुष्य के भीतर लोभ, मोह, काम, और क्रोध आदि विकार स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहते हैं। भारतीय संस्कृति इन विकारों से मनुष्य को संयम के बंधन में बांधकर रखने का प्रयास करती है, ताकि वे मनुष्य की प्रधान शक्ति न बन जाएँ।
प्रश्न 4. धर्म और कानून में क्या अंतर है?
उत्तर: लेखक के अनुसार, भारतवर्ष ने धर्म को हमेशा कानून से अधिक बड़ा माना है। धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता, लेकिन कानून को धोखा दिया जा सकता है। यही कारण है कि जो लोग धार्मिक प्रवृत्ति (धर्मभीरु) के होते हैं, वे कानून की कमियों से लाभ उठाने में भी संकोच करते हैं।
प्रश्न 5. किसी ऐसी घटना का वर्णन करो जिससे लोक चित्त में अच्छाई का भाव जाग्रत हो।
उत्तर: लेखक ने एक बार रेलवे स्टेशन पर टिकट लेते समय की घटना बताई। उन्होंने जल्दी में दस रुपये की जगह सौ रुपये का नोट दिया। टिकट बाबू ने उन दिनों के सैकड़ों ग्लास के डिब्बों में से लेखक को पहचान लिया। उन्होंने विनम्रता से लेखक के हाथ में नब्बे रुपये वापस रख दिए। टिकट बाबू के चेहरे पर संतोष की गरिमा देखकर लेखक चकित रह गए।
(ख) लगभग 150 शब्दों में उत्तर दें
प्रश्न 3. ‘क्या निराश हुआ जाए?’ निबंध का सार अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर: ‘क्या निराश हुआ जाए?’ डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी का मानवीय मूल्यों पर आधारित एक निबंध है। लेखक वर्तमान समाज में फैले भ्रष्टाचार, चोरी, ठगी और आरोप–प्रत्यारोप के माहौल पर चिंता व्यक्त करते हैं, जहाँ दोषों को बढ़ा–चढ़ाकर दिखाया जा रहा है।
लेखक मानते हैं कि ईमानदारी को मूर्खता समझा जाने लगा है, लेकिन उनका दृढ़ मत है कि सत्य, दया, और ईमानदारी जैसे महान मूल्य समाप्त नहीं हुए हैं। मनुष्य में लोभ और मोह जैसे विकार स्वाभाविक हैं, पर भारतीय संस्कृति ने संयम के ज़रिए इन्हें बांधकर रखा है। लेखक इस बात पर बल देते हैं कि धर्म कानून से बड़ा है, क्योंकि धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता।
निबंध के अंत में, लेखक ने दो उदाहरण दिए हैं (रेलवे टिकट बाबू और बस कंडक्टर) जो यह सिद्ध करते हैं कि समाज में आज भी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा की भावना ज़िंदा है। लेखक निष्कर्ष निकालते हैं कि हमें केवल बुराई को उजागर करने की बजाय, अच्छाई पर ध्यान देना चाहिए और भविष्य के लिए निराश नहीं होना चाहिए।
प्रश्न 4. इस निबंध में द्विवेदी जी ने कुछ घटनाएँ दी हैं जो सच्चाई और ईमानदारी को उजागर करती हैं। उनमें से किसी एक घटना का वर्णन अपने शब्दों में करें।
उत्तर: लेखक ने बस यात्रा के दौरान हुई एक घटना का वर्णन किया है जो मानवीय मूल्यों और ईमानदारी को उजागर करती है। लेखक अपनी पत्नी और बच्चों के साथ बस में सफर कर रहे थे। गंतव्य से कोई पाँच मील पहले, बस एक निर्जन सुनसान स्थान में रात के लगभग दस बजे ख़राब हो गई। कंडक्टर तुरंत एक साइकिल लेकर चला गया, जिससे यात्रियों को संदेह हुआ कि वे धोखा देकर भाग गया है। कुछ यात्री ड्राइवर को मारने–पीटने के लिए तैयार हो गए।
करीब आठ मील पहले जाने के बाद, कंडक्टर एक नई बस लेकर वापस आया। उसने यात्रियों को उसमें बिठाया और पुरानी बस से बच्चों के लिए पानी और दूध भी लेता आया। कंडक्टर के इस कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदार व्यवहार से यात्रियों का भय और संदेह दूर हो गया। यह घटना दर्शाती है कि बुराई की घटनाओं के बीच भी ऐसी अवांछित (न चाहने योग्य) घटनाएँ (ईमानदारी) होती हैं, जिनमें अच्छाई की शक्ति छिपी होती है।
(ग) सप्रसंग व्याख्या करें
प्रश्न 1. “जीवन के महान मूल्यों के बारे में आस्था हिलने लगी है?”
प्रसंग: यह गद्यांश (गद्य की विधा: निबंध) ‘हिंदी पुस्तक 12′ से संकलित ‘क्या निराश हुआ जाए?’ नामक पाठ से लिया गया है। इस निबंध के लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं। इस पंक्ति में लेखक उस चिंताजनक सामाजिक स्थिति का वर्णन कर रहे हैं जहाँ ईमानदारी का मूल्य कम हो गया है।
व्याख्या: लेखक वर्तमान समाज के निराशाजनक माहौल को दर्शाते हैं। जब ईमानदारी और मेहनत से जीविका चलाने वाले भोले–भाले श्रमजीवी पिस जाते हैं और झूठ तथा फ़रेब का रोजगार करने वाले लोग समृद्ध होते हैं, तो लोग यह मानने लगते हैं कि ईमानदारी एक मूर्खतापूर्ण व्यवहार है। इस स्थिति में, सत्य, दया, और कर्तव्यनिष्ठा जैसे मूलभूत मानवीय मूल्यों के प्रति लोगों का विश्वास (आस्था) डगमगाने लगता है।
प्रश्न 2. “धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता, कानून को दिया जा सकता है।“
प्रसंग: यह गद्यांश (गद्य की विधा: निबंध) ‘हिंदी पुस्तक 12′ से संकलित ‘क्या निराश हुआ जाए?’ नामक पाठ से लिया गया है। इस निबंध के लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं। इस कथन में, लेखक भारतीय दृष्टिकोण से धर्म और कानून के बीच के नैतिक अंतर को समझाते हैं।
व्याख्या: लेखक कहते हैं कि भारतवर्ष ने हमेशा कानून (सामाजिक कायदे) से ऊपर धर्म को स्थान दिया है। कानून मनुष्य द्वारा बनाए जाते हैं और इनमें त्रुटियां हो सकती हैं, इसलिए लोग लोभ या स्वार्थवश कानूनों का उल्लंघन करके उन्हें धोखा दे सकते हैं। लेकिन धर्म व्यक्ति के अंत:करण में स्थित होता है, जो उसे पाप करने से रोकता है। व्यक्ति के भीतर जो धर्मभीरुता (धर्म का भय) है, उसे धोखा देना संभव नहीं है।
प्रश्न 3. “अच्छाई को उजागर करना चाहिए, बुराई में रस नहीं लेना चाहिए।“
प्रसंग: यह गद्यांश (गद्य की विधा: निबंध) ‘हिंदी पुस्तक 12′ से संकलित ‘क्या निराश हुआ जाए?’ नामक पाठ से लिया गया है। इस निबंध के लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं। लेखक यहाँ समाज में सकारात्मकता बनाए रखने के लिए आवश्यक नैतिक दृष्टिकोण की बात करते हैं।
व्याख्या: लेखक मानते हैं कि बुराई का पर्दाफाश करना (बुराई को मालूम करना) बुरी बात नहीं है। लेकिन किसी के आचरण के गलत पक्ष को उद्घाटित करते समय उसमें ‘रस‘ लेना या आनंद उठाना अत्यंत बुरी बात है। लेखक ज़ोर देते हैं कि दोषों को उजागर करने से अधिक सैकड़ों अच्छी घटनाएँ ऐसी होती हैं, जिन्हें प्रकाशित करने से लोगों के मन में अच्छाई के प्रति अच्छी भावना जाग्रत होती है। हमारा ध्यान केवल दोषों पर नहीं, बल्कि अच्छाई पर होना चाहिए।
प्रश्न 4. “सामाजिक कायदे कानून…….उसे देखकर हताश हो जाना ठीक नहीं।“
प्रसंग: यह गद्यांश (गद्य की विधा: निबंध) ‘हिंदी पुस्तक 12′ से संकलित ‘क्या निराश हुआ जाए?’ नामक पाठ से लिया गया है। इस निबंध के लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं। लेखक उन लोगों को समझा रहे हैं जो सामाजिक अस्थिरता और संघर्ष देखकर निराश हो जाते हैं।
व्याख्या: यह उद्धरण इस बात पर बल देता है कि समाज में जो कायदे–कानून बनाए जाते हैं, वे समय–समय पर पुराने और प्रतिष्ठित आदर्शों से टकराते हैं। जब ऐसा होता है, तो समाज की ऊपरी सतह आंदोलित हो जाती है। लेखक कहते हैं कि यह टकराव पहले भी हुआ है और आगे भी होता रहेगा। इसलिए, इन सामाजिक उथल–पुथल को देखकर निराश या हताश हो जाना ठीक नहीं है, क्योंकि ये समाज के विकास की प्रक्रिया का हिस्सा हैं।